सोनिया गांधी से मुलाकात करने के बाद नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के हाथों में हाथ डाले तस्वीर सामने आई। इसके साथ ही एक नए सामाजिक समीकरण को भी ये बयां करने के लिए काफी है। यादव जाति की राजनीति और उसके प्रभाव को हम बिहार-यूपी में देख चुके हैं, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में पहली बार कुर्मी नेतृत्वकर्ता की भूमिका में नजर आ रहा है। नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के साथ हाथ मिलाने के बाद ओबीसी कुर्मी समुदाय के कॉम्बिनेशन को सामने रखा है, जिससे बिहार के मुख्यमंत्री संबंधित हैं। कुर्मी यादवों की तुलना में छोटे समुदाय हैं और दोनों बीच हमेशा सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं रहे हैं। लेकिन कुर्मियों की राजनीतिक आकांक्षा हाल के हफ्तों में तेज हो गई है और यादव पहली बार उन्हें “बड़े भाई” के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। यदि नीतीश और लालू के बीच संबंध जारी रहता है, तो भाजपा को बिहार में कुछ नई तरह की सामाजिक इंजीनियरिंग की आने वाले दिनों में देखने को मिल सकती है। ऐसे में आइए जानते हैं कुर्मी कौन हैं, राज्यों में अच्छी तादाद में हैं और उनका राजनीतिक इतिहास क्या रहा है?
समुदाय
कुर्मी एक जमींदार कृषक समुदाय हैं जिनकी स्थिति जगह-जगह बदलती रहती है। केएस सिंह द्वारा संपादित पीपुल ऑफ इंडिया श्रृंखला में कुर्मियों को “प्रगतिशील किसान” के रूप में संदर्भित किया है, जो क्षेत्र में उपलब्ध सभी विकास योजनाओं का अधिकतम लाभ उठाते हैं। यादवों के विपरीत, कुर्मी पटेल, वर्मा, सचान, गंगवार, कटियार, बैस्वर, जायसवार, महतो, प्रसाद, सिन्हा, सिंह, प्रधान, बघेल, चौधरी, पाटीदार, कुनबी, कुमार, पाटिल, मोहंती, कनौजिया, चक्रधर, निरंजन, पाटनवर, और शिंदे जैसे कई प्रकार के उपनामों का उपयोग करते हैं। कुछ कुर्मी उपनाम अन्य समुदायों द्वारा भी उपयोग किए जाते हैं, जिससे कुर्मी को अकेले नाम से पहचानना मुश्किल हो जाता है। कभी-कभी वे उपनाम का बिल्कुल भी उपयोग नहीं करते हैं। कुर्मी उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, गोवा और कर्नाटक कई राज्यों में हैं। बिहार में नीतीश के अलावा छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी कुर्मी जाति से आते हैं।
जाति की स्थिति
अधिकांश राज्यों में कुर्मी आरक्षण के लिए केंद्र और राज्य दोनों सूचियों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में आते हैं। गुजरात में कुर्मियों से जुड़े पटेल सामान्य वर्ग में हैं और ओबीसी दर्जे की मांग कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड में जहां कुर्मी को ‘कुड़मी’ लिखा जाता है, अनुसूचित जनजातियों में शामिल होना चाहते हैं।
सरकार में प्रतिनिधित्व
सरकारी नौकरियों में विभिन्न उप-जातियों के प्रतिनिधित्व पर कोई डेटा उपलब्ध नहीं है। लेकिन 2018 में ओबीसी को उप-वर्गीकृत करने के लिए गठित जस्टिस जी रोहिणी आयोग ने पिछले पांच वर्षों में ओबीसी कोटे के तहत दिए गए 1.3 लाख केंद्रीय नौकरियों और विश्वविद्यालयों, आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम सहित केंद्रीय उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी प्रवेश के आंकड़ों का विश्लेषण किया। तीन वर्षों में कथित तौर पर पाया गया कि मुख्य लाभार्थी यादव, कुर्मी, जाट, सैनी, थेवर, एझावा और वोक्कालिगा थे। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार जहां यादवों का सुरक्षा बलों और पुलिस आदि में महत्वपूर्ण प्रतिनिधित्व है, वहीं कुर्मी विशेष रूप से यूपी और बिहार से सिविल सेवाओं और मेडिकल कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में बेहतर प्रतिनिधित्व मिला है।
बिहार में कुर्मी
बिहार, यूपी, ओडिशा, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में कुर्मी एक महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत हैं। स्वतंत्रता पूर्व बिहार में एक यादव (जगदेव प्रसाद यादव), एक कुर्मी (शिव पूजन सिंह) और एक कुशवाहा (यदुनंदन प्रसाद मेहता) नेता द्वारा गठित त्रिवेणी संघ नामक एक राजनीतिक मोर्चे ने 1937 के चुनावों में भाग लिया था। शिवपूजन सिंह के अपने जाति के लोगों के बीच व्यापक अनुयायी थे। बाद के वर्षों में बिहार (झारखंड सहित) के प्रमुख कुर्मी नेताओं में पूर्व सांसद और राज्यपाल सिद्धेश्वर प्रसाद शामिल हैं। इसके अलावा पूर्व सांसद और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के संस्थापक नेता बिनोद बिहारी महतो जिन्होंने शिवाजी समाज नामक संगठन के माध्यम से शिवाजी को उत्तर भारत के कुर्मियों से जोड़ने की मांग की थी। वहीं 1968 में केवल चार दिन के बिहार के मुख्यमंत्री बनने वाले सतीश प्रसाद सिंह का भी नाम इस सूची में शामिल है। बिहार के ओबीसी के यादव नेतृत्व की स्थापना मुख्यमंत्रियों बीपी मंडल और दरोगा प्रसाद राय ने लालू के दशक से पहले की थी, जिसे अंततः नीतीश कुमार ने समाप्त कर दिया था। बिहार और यूपी में क्रमशः लालू और मुलायम सिंह यादव के उदय के बाद इन राज्यों में कुर्मियों ने खुद को एक राजनीतिक ऊंचाई देने के लिए उच्च जातियों के साथ गठबंधन किया। नीतीश ने विशेष रूप से उत्तर भारत में यादवों की नापसंदगी का इस्तेमाल अपनी मर्जी से भाजपा के साथ गठजोड़ करने या तोड़ने के लिए किया।
यूपी में कुर्मी
भाजपा से पहले भारतीय जन संघ (बीजेएस) ने ओबीसी नेताओं को उनके नेतृत्व में चौधरी चरण सिंह के पास जाने से पहले पदोन्नत किया, जिन्होंने जन कांग्रेस बनाने के लिए कांग्रेस से नाता तोड़ लिया था। यूपी (अप्रैल 1967) में चरण सिंह की पहली सरकार में वित्त मंत्री कानपुर के एक अम्बेडकरवादी कुर्मी थे, जिन्हें राम स्वरूप वर्मा के नाम से जाना जाता था। उत्तर प्रदेश में 60 और 70 के दशकों के एक अन्य प्रमुख कुर्मी नेता जयराम वर्मा हुआ करते थे। अभी तक कोई कुर्मी यूपी का मुख्यमंत्री नहीं बना है। बेनी प्रसाद वर्मा को कई सालों तक समाजवादी पार्टी में मुलायम का नंबर 2 माना जाता रहा। वो कुछ वर्षों के लिए कांग्रेस में शामिल हुए और यूपीए-टू सरकार में केंद्रीय मंत्री बने। इसके बाद एक कुर्मी नेता सोनेलाल पटेल ने बसपा छोड़ अपना दल का गठन किया, जिसके दो गुटों का नेतृत्व अब उनकी दो बेटियां, केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल और सपा विधायक पल्लवी पटेल कर रही हैं। पल्लवी और उनकी मां कृष्णा पटेल यूपी में नीतीश कुमार के साथ संबंध मजबूत करने की कोशिश कर रही हैं। यूपी विधानसभा में कुर्मियों की संख्या वर्तमान में 41 है, जो 2017 के आंकड़े 34 से अधिक है। सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले कुर्मी नेताओं ने योगी आदित्यनाथ सरकार के तीन मंत्रियों को हराया। भाजपा से 22 कुर्मियों ने चुनाव जीता। भले ही यादव विधायकों की संख्या 2017 में 17 से बढ़कर 2022 में 25 हो गई। विधानसभा चुनाव के वक्त सपा और भाजपा दोनों के यूपी अध्यक्ष क्रमशः नरेश उत्तम पटेल और स्वतंत्र देव सिंह कुर्मी थे। कोई वर्तमान डेटा नहीं है, लेकिन जून 2001 में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह द्वारा गठित एक सामाजिक न्याय समिति ने अनुमान लगाया था कि ओबीसी यूपी की आबादी का 43.13 प्रतिशत है, जिसमें यादव 19.4 प्रतिशत और कुर्मी 7.46 प्रतिशत हैं। नीतीश की राष्ट्रीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा समय समय पर उबाल मारती रही है। भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रहे लालू के परिवार ने कम से कम अभी के लिए लालू के “छोटा भाई” के नेतृत्व को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया है। हालांकि इसका यूपी के चुनावी नतीजों पर क्या असर पड़ता है, यह देखना बाकी है। -अभिनय आकाश