तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। पिछले अंक में हम सबने भगवान श्रीकृष्ण-जन्म की कथा सुनी। माता देवकी और वसुदेव शिशु का दिव्य और अद्भुत रूप देखकर चकित हो जाते हैं। भगवान उन्हें समझाते हैं।
आइए ! आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं–
माँ देवकी शिशु के रूप में भगवान से कहती हैं— मुझे तो एक ही आश्चर्य होता है,- हे प्रभो!!
अनंत ब्रह्मांड जिसके रोम-रोम में विचरण करते हैं, वह इतना बड़ा ब्रह्म मेरे पेट में कैसे समा गया?
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै।।
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।।
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।।
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना ——————-
माँ देवकी ने बड़ी सुंदर स्तुति की। भगवान बोले– माँ आपने पूर्व में बड़ा तप किया था तो मैंने बेटा बनने का वचन दिया था। आप पहले अदिति कश्यप बने तो मैं वामन बनकर आया। आज मैं तुम्हारा बेटा बनकर आया हूँ। जैसे ही नन्हा-सा बालक बनूँ, मुझे गोकुल में नंदबाबा के पास छोड़ आना बाकी किसी से कुछ न कहना। इतना कहकर—
बभूव प्राकृत: शिशु: एक नन्हे से बालक बनकर देवकी मैया की गोदी में प्रभु प्रकट हुए।
बोलिए बाल कृष्ण लाल की जय।
रोये गाये बिलकुल नहीं। क्यों, रामावतार में रोए तो दास-दासियाँ बधाइयाँ लेकर दौड़े और यदि यहाँ रोए तो मामाजी डंडा लेकर झपट पड़ेंगे। इसलिए तुष्णीं बभुव” चुप रहे।
प्रभु माँ की गोदी में क्रीड़ा कर रहे हैं। वासुदेवजी ने उठाकर हृदय से लगा लिया।
सूप में उठाया और सिर पर धारण कर लिया। भगवान को धारण करते ही वासुदेव की बेड़ी और हथकड़ियां अपने आप खुल गईं, जेल के दरवाजे अपने आप खुल गये, पहरेदार खर्राटे मारकर सोने लगे। भागवत का एक सुन्दर संदेश- जीव जब भगवान से नाता जोड़ता है, तब संसार के सारे बधन स्वत: खुल जाते हैं। जितने भी अज्ञान के कपाट होते हैं वे सब हट जाते हैं। काम क्रोध लोभ जितने भी शत्रु हैं वो सब सो जाते हैं और जीव “शुद्ध-बुद्ध और मुक्त हो जाता है। वसुदेव जी की तरह। और वही जीव जब माया रूपी कन्या से संबंध जोड़ता है, तब फिर बंध जाता है।
कृष्ण रूपी चेतना जब हमारे भीतर जागती है, तब हमारे हृदय का अंधकार नष्ट हो जाता है। तेरा-मेरा, जात-पात, अमीर-गरीब, धर्म-अधर्म और अहंकार की जंजीर टूट जाती है। कृष्ण जन्म का यही संदेश है।
वसुदेव जी जब लाला को लेकर चले तब आकाश के मेघमंडलों ने देखा और विचार किया, वाह! हम भी साँवले हमारे प्रभु भी सांवले। हम भी घनश्याम और ये भी घनश्याम। चलो इनका स्वागत करें, कैसे- भगवान ने छूट दे रखी है– पत्रं पुष्पं फलं तोयं। जो हो तुम्हारे पास वही दो। मेघौं ने कहा- हमारे पास तो जल है, चलो जल ही देते हैं। शुकदेव जी कहते हैं—–
ता: कृष्ण वाहे वसुदेव आगते, स्वयं व्यवर्यन्त यथा तमो रवे:
ववर्ष पर्जन्य उपांशुगर्जित:, शैषोन्वगात् वारि निवारयन् फणै:।।
मेघ मंडलों ने मंद मंद पानी की फुहारें छोड़नी प्रारंभ कर दीं। अब शेष नाग को लगा, हमारे छोटे से प्रभु पर ये पानी बरसाने लगे।
अपने हजारों फन तानकर जलवृष्टि को रोकते हुए प्रभु के पीछे पीछे चल पड़े। जैसे ही यमुना महरानी ने अपने प्रियतम का बाल-रूप देखा, मुग्घ हो गईं। हमारे प्रियतम पधार रहे हैं, तो विना पदप्रक्षालन के नहीं जाने दूँगी। एक भक्त की कल्पना देखिए—
डिम-डिम डिगा-डिगा मौसम भिगा-भिगा मैं तो आई, मैं तो आई हे लल्ला
सूरत आपकी सुभान अल्ला————-
उमड़ घुमड़कर यमुना का जल वासुदेव के कंठ तक आ गया। प्रभु जान गए कि देवी को चरण छूने की पड़ी है और पिताजी डूबे जा रहे हैं। तुरंत अपना चरण नीचे लटका दिया जैसे ही चरण का स्पर्श जल से हुआ कि यमुना वसुदेव के घुटनों तक आ गई। बोलिए यमुना महारानी की जय। इस विषय में संतों का अलग-अलग मत है। एक संत कहते हैं- यमुना अपने प्रियतम से मिलने चली। श्वसुर की दाढी दिख गई शरमा कर नीचे चली गई। एक संत का मानना है कि लज्जा छोड़कर प्रियतम से मिलने आई तो प्रभु ने पाद प्रहार किया और मर्यादा में रहने को कहा। इस प्रकार यमुना पार कर वसुदेव नंद भवन पहुँचे जहाँ योगमाया के प्रभाव से सारे ब्रजवासी गहरी निद्रा में खर्राटे बजा रहे थे। धीरे से प्रसूतिका गृह में जाकर लाला को सुला दिया और लाली को उठा लिया। जैसे ही कन्या को लेकर कारागृह में आए कन्या गला फाड़-फाड़कर रो पड़ी। हाथ में हथकड़ियाँ लग गईं। केवाड़ अपने आप बन्द हो गए। कन्या का रूदन सुनकर पहरेदार जग गए। कंस को सूचना दी। कंस दौड़ा आया, पर देवकी की गोद में लाला की जगह लाली को देखा तो बड़ा घबराया। कंस ने सोचा कि लगता है कि देवताओं की इसमें भी कोई गहरी चाल है। मैं किसी को छोड़ने वाला नहीं हूँ। कन्या का पैर पकड़ कर घूमा रहा था कि कन्या हाथ छुड़ाकर भाग गई और अष्टभुजी होकर प्रकट हो गई।
शेष अगले प्रसंग में । ——–
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ———-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।