अब जबकि सूरत में 14 सितंबर,2022 से दोदिवसीय द्वितीय राजभाषा सम्मेलन प्रारंभ हो रहा है, तो यह जरूरी है कि हम राजभाषा की विकास बाधाओं पर बात जरूर करें। यह भी पहचानें कि राजभाषा किसकी है और राजभाषा की जरूरत किसे है? लंबे समय के बाद दिल्ली में एक ऐसी सरकार है जिसके प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और प्रमुख नेता राजभाषा को लेकर बहुत संजीदा हैं। प्रधानमंत्री जी ने भारत ही नहीं विश्वमंच पर हिंदी में बोलकर आम हिंदुस्तानी को आत्मविश्वास से भर दिया है।
आज हमारे प्रमुख मंत्रीगण राजभाषा हिंदी में बोलते और उसमें व्यवहार करते हैं। इसी तरह गृह मंत्री श्री अमित शाह जो स्वयं गुजराती भाषी हैं, का भी हिंदी प्रेम जाहिर है। वे राजभाषा की उपयोगिता और उसकी शक्ति को जिस तरह पारिभाषित करते हैं, वह अप्रतिम है। अभी पिछले माह भोपाल में हुआ उनका व्याख्यान हो या पिछले वाराणसी राजभाषा सम्मेलन में उनका वक्तव्य वो आंखें खोलने का काम करता है। सबसे बड़ी बात वे इसे औपनेवेशिक गुलामी से जोड़कर देखते हैं और हीनताग्रंथि से मुक्त होने की बात करते हैं। राजभाषा सम्मेलन का आयोजक गृह मंत्रालय ही है, ऐसे में उनका गृह मंत्री का होना सौभाग्य ही है, जिन्होंने अपने राजभाषा प्रेम के जादू से लोगों को सम्मोहित कर रखा है। यानि राजनीति के मैदान पर हिंदी इस वक्त बहुत ताकतवर दिखती है। इस समय को रेखांकित करते हुए हमें हिंदी और भारतीय भाषाओं के उत्कर्ष के लिए इस्तेमाल करना होगा। सूरत के सम्मेलन में गृहमंत्री जी के अलावा शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और अनेक प्रमुख विद्वान, पत्रकार, हिंदी सेवी, फिल्मकार हिस्सा लेने वाले हैं, इसमें दो दिन में कुल सात सत्रों में बहुत महत्त्वपूर्ण चर्चाएं होनी हैं। उम्मीद की जानी चाहिए यह सम्मेलन कुछ नई रोशनी लेकर हमारी भाषाओं के भी अच्छे दिन लाने वाला साबित होगा।
आजादी के बाद लंबे समय तक हिंदी ज्ञान- विज्ञान, उच्चशिक्षा, तकनीकी शिक्षा से लेकर प्राथमिक शिक्षा तक कहीं अब भी अंग्रेजी का विकल्प नहीं बन सकी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने के बाद यह उम्मीद की जा रही है कि मातृभाषाओं की स्थिति में कुछ सुधार होगा और उनमें शिक्षा के इंतजाम बेहतर होंगें। अनेक राज्यों ने मेडिकल और तकनीकी शिक्षा के लिए हिंदी माध्यम में पाठ्यक्रम तैयार कर लिए हैं। यह एक सुखद संकेत है। इससे बदलते हुए भारत में हिंदी और भारतीय भाषाओं के दिग्विजय का मार्ग प्रशस्त हो रहा है। हिंदी और भारतीय भाषाएं सम्मान पाती हुई दिख रही हैं।
नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन में स्वामी दयानंद से लेकर विवेकानंद तक लोगों को जगाने के अभियान की भाषा हिंदी ही बनी। गांधी ने भाषा की इस शक्ति को पहचाना और करोड़ों लोगों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया तो उसका माध्यम हिंदी ही बनी थी। दयानंद ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसा क्रांतिकारी ग्रंथ हिंदी में रचकर हिंदी को एक प्रतिष्ठा दी। जानकारी के लिए ये दोनों महानायक हिंदी भाषा नहीं थे । तिलक, गोखले, पटेल सबके मुख से निकलने वाली हिंदी ही देश में उठे जनज्वार का कारण बनी। यह वही दौर है जब आजादी की अलख जगाने के लिए ढेरों अखबार निकले । उनमें ज्यादातर की भाषा हिंदी थी। यह हिंदी के खड़े होने और संभलने का दौर था। यह वही दौर जब भारतेन्दु हरिचन्द्र ने ‘भारत दुर्दशा’ लिखकर हिंदी मानस झकझोरा था। उधर पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘आज’ के संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माधवराव सप्रे, मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी एक इतिहास रच रहे थे। मिशनरी पत्रकारिता का यह समय ही हमारी हिंदी पत्रकारिता की प्रेरणा और प्रस्थानबिंदु है। यह बहुत सुंदर है कि आजादी के आंदोलन की भाषा रही हिंदी और भारतीय भाषाएं आजादी के अमृत काल में सम्मान पा रही हैं।